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सुविचार

Lakshadweep

आप वही हैं जिस पर आप विश्वास करते हैं। आप वही बन जाते हैं जिस पर आपको विश्वास है कि आप बन सकते हैं।

India Gate

मनुष्य अपने विश्वास से बनता है। जैसा वह विश्वास करता है, वैसा ही वह होता है।

Hawamahal

जो जन्मा है उसके लिए मृत्यु उतनी ही निश्चित है, जितना कि जो मर चुका है उसके लिए जन्म निश्चित है। इसलिए जो अपरिहार्य है उसके लिए शोक मत करो।

Taj Mahal

जो मनुष्य कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है।

Gita

आश्री के बारे में

" आश्री " संस्कृत मूल से लिया गया एक शब्द है । इसका अर्थ है रक्षक या संरक्षक । रक्षक का उद्देश्य है संभावित खतरों से बचाना और संरक्षक का अर्थ है आश्रय देने वाला और कल्याण करने वाला । तभी तो श्रीकृष्ण कहते हैं
" सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो, मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
उक्त श्लोक में भगवान कहते हैं कि मेरी शरण में आ जा, हर प्रकार से तेरा कल्याण होगा, ये मैं वचन देता हूँ ।
आश्री शब्द का पहला अक्षर " आ " आनन्द सागर (भगवान श्रीकृष्ण का एक नाम)" से लिया गया है जबकि " श्री " माता राधा या लक्ष्मी का एक नाम है । इससे ज्यादा महत्वपूर्ण एक बात और भी है । वो ये कि श्रीमद्भगवद्गीता मे भगवान श्रीकृष्ण ने सारा उपदेश मुस्कान मुद्रा में दिया है । आश्री का एक अर्थ हमेशा मुस्कुराना भी है । जरा ध्यान कीजिए । परिस्थिति जब विकट हो तो सोचने की शक्ति कुंठित हो जाती है । सही - गलत के बीच भेद करने में दिमाग काम नहीं करता । ऐसे हालात में जरुरत होती है परिस्थिति की भयावहता कम करना । ताकि दिमाग की जड़ता कम हो और समुचित निर्णय लेने में मदद मिले ।
मुस्कुराना सकारात्मक अभिव्यक्ति है । इससे उत्सर्जित उर्जा आसपास के वातावरण को भी सकारात्मक बना देता है । अर्जुन के लिए एक तो युद्ध करना ही असहनीय था । ऊपर से दुश्मनों की पंक्ति में अपने पूज्य और प्रियजनों को देखकर अर्जुन का आत्मविश्वास ही डिग गया था । ऐसे में किंकर्तव्यमूढ़ हुआ अर्जुन, युद्ध करने से इंकार कर दिया । तब भगवान श्रीकृष्ण हँसते हुये अर्जुन से संवाद प्रारम्भ किये । श्रीकृष्ण वातावरण को सकारात्मक बनाने के लिए, आश्चर्य भाव के साथ मुस्कान मुद्रा में निम्न वचन बोले । =
" अशोच्या - नन्व - शोचस् - त्वं, प्रज्ञा - वादांश् - च भाषसे ।
गतासून - गतासूंश् - च, नानु - शोचन्ति पण्डिताः ॥
इस श्लोक में श्रीकृष्ण, अर्जुन के शिथिल पर गये पुरुषार्थ को सजग और जागृत करने के लिए शोक न करने योग्य विषय के लिए शोक करना और अपने कर्तव्य से विमुख हो जाना पुरुषार्थी मनुष्य के लिए सर्वथा अनुचित है ।
इस प्रकार आश्री शब्द को परिभाषित करते हुये कहा जा सकता है कि " प्रसन्नचित्त भगवान श्रीकृष्ण और माता राधे के आशीर्वाद से संरक्षित आश्री (आश्रय मे रहने वाला) मनुष्य के जीवन में भयमुक्त मुस्कान सदा बनी रहती है और स्व - कल्याण सुनिश्चित है । 

Gita

लेखक के बारे में

मैं, विवेकानन्द, महान भारत के एक महत्वपूर्ण राज्य बिहार मे जन्में, रमें और रचे - बसे । स्कूली शिक्षा जिला स्कूल, मुजफ्फरपुर में हुआ । वर्ष 1969 - 70 मे स्कूल के स्मारिका में मेरी पहली रचना कविता के रुप मे छपी थी । कविता का शीर्षक था " पैटन टैंक " । आगे की पारंपरिक शिक्षा मे राजनीतिशास्त्र में स्नातकोत्तर डिग्री ( MA) के साथ - साथ कानून में डिग्री ( LL.B) एवं व्यवसाय प्रबंधन में स्नातकोत्तर डिग्री (MBA) बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर से प्राप्त किया । शिक्षा प्राप्ति के पश्चात 1981 में बिहार के एक ग्रामीण बैंक मे अधिकारी के रूप मे चयनित हुआ । बैंक में विभिन्न प्रबंधकीय पदों पर लगभग 35 वर्षों तक सेवा देकर 2016 में अवकाश प्राप्त किया । 1989 के बाद कुछ वर्षों तक बैंकिंग कोचिंग संस्थान से जुड़ने का अवसर मिला । संस्थान के बच्चों को सफलता भी मिली । संस्थान द्वारा 1990 - 91 में हिन्दी माध्यम के प्रतियोगियों के लिए यूपीएससी, बिपीएससी की प्रशासकीय प्रतियोगिता परीक्षा हेतु हिन्दी में " ऑपरेशन केरियर " के नाम से मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरु किया गया । इस पत्रिका का मैं अवैतनिक मुख्य संपादक रहा । 9 -10 अंक प्रकाशित भी हुये । परीक्षार्थियों ने इसे सराहा भी । लेकिन पूंजी एक बड़ी समस्या बनी और प्रकाशन बंद करना पड़ा । वर्ष 1991 में बिहार सरकार और इलाहाबाद बैंक द्वारा पोषित संस्था " उद्यमिता विकास संस्थान, पटना " से Resource person के रूप में जुड़ने का मौका मिला । यहाँ से मेरी सोंच मे एक सकारात्मक बदलाव आना शुरु हुआ । ये बदलाव था समस्या से भागने के बजाये सामना करने का नजरिया । 1997 में जहाँ पोस्टिंग हुयी, अंग्रेज के समय से ही वह स्थान प्रखंड मुख्यालय होने के बावजूद, जिले में काले पानी के नाम से जाना जाता है । वहाँ के लोग बुरे नहीं हैं बल्कि तब वहाँ की भौगोलिक स्थिति काफी कष्टप्रद था । कई नदियों से घिरा यह स्थान एक टापू की तरह था । वहाँ का पदस्थापन नर्म दंडात्मक कार्रवाई मानी जाती है । परिणामस्वरूप शाखा की प्रगति पर ध्यान दी ही नहीं गयी । तभी तो मार्च 1977 से कार्यरत शाखा का कुल जमा 1997 में लगभग 90 लाख रूपया था । ऋण लगभग दो करोड़ रूपये थे । इस विपरीत परिस्थिति में उस स्थान पर मेरा पदस्थापन मेरे लिए क्या था, आप सोंचे ? शुरुआती महीनों में मैं भी यहाँ से स्थानांतरण हेतु सभी संभव प्रयास किए थे । लेकिन असफल रहा । परिणाम कुछ नहीं । तब एक दिन विचार आया कि यहाँ रहना अगर नियति है तो इसे विपत्ति के बजाये एक चुनौती के रूप मे स्वीकार क्यों न करें ? इस नजरिये ने इस आपदा को अवसर में बदलना शुरू कर दिया । पूर्व में पदस्थापित बैंक कर्मचारियों को जहाँ इस स्थान से नफरत था , मुझे लगाव होने लगा । अब बैंकिंग के सामान्य कार्यों के साथ - साथ कुछ विशिष्ट और चुनौतीपूर्ण दायित्वों को सफलता पूर्वक पूरा करने का अवसर मिला । 1999 में भारत सरकार पोषित कार्यक्रम " स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना के अंतर्गत स्वयं सहायता समूह ऋण योजना " आया । इस योजना को सफलतापूर्वक संचालित करने का अवसर मिला । पूरे बैंक में समूह ऋण योजना का विशेषज्ञ बन गया । वर्ष 2000 के अंत होते होते जमा राशि 4 करोड़ से ऊपर चला गया । अक्टूबर महीने में एक दूसरे बीमारु शाखा में मेरा स्थानांतरण हो गया । 4 - 5 महीने में ही उसकी स्थिति में सुधार होनी शुरु हो गयी । मेरी उपलब्धी को देखते हुये अप्रैल 2001 मे मेरा पदस्थापन बैंक के प्रधान कार्यालय मे हुआ । ऋण विभाग मेरे जिम्मे आया । वहाँ भी मेरी उपलब्धी शानदार रहा । 2005 में मेरा स्थानांतरण बैंक के क्षेत्रीय कार्यालय में हुआ । जिला प्रशासन द्वारा जिला स्तरीय स्वयं सहायता समूह ऋण वितरण शिविर का आयोजन किया गया । शिविर में कार्यरत सभी बैंको की सहभागिता सुनिश्चित करने के लिए जिला प्रशासन द्वारा समन्वयक की जवाबदेही हमे दी गयी । इस अवसर पर मेरे सम्पादन में एक स्मारिका प्रकाशित हुयी थी । साथ ही, स्वयं सहायता समूह के महत्व और प्रासंगिकता पर लगभग 38 मिनट का एक वृत्तचित्र भी प्रस्तुत किया गया । फिल्म में बैंक प्रबंधक की भूमिका मैने निभायी थी । कार्यक्रम काफी सफल रहा । एक सकारात्मक सोच ने सफलता के सफर को अवकाश प्राप्ति के दिन तक बनाये रखा । अंततः जून 2016 में बैंक से स्थायी अवकाश मिल गया । बैंकिंग कार्य से स्थायी अवकाश मिला परन्तु जिंदगी का सफर तो जारी है । काम की केवल प्रकृति बदली है, व्यस्तता तो यथावत है। बचपन से ही आध्यात्म मेरा प्रिय विषय रहा है । लिखने का शौक तो पहले से था ही, इसलिए अवकाश प्राप्ति के पश्चात आध्यात्म के विषयों पर अपनी सोंच, अपनी समझ और अपना अनुभव, लेखन के माध्यम से, लोगों के सामने रखने का कार्य मेरा नया कर्मक्षेत्र बना । इस क्रम मे मेरी पहली रचना श्रीरामचरितमानस के प्रमुख घटनाओं को, हनुमानजी की प्रत्यक्ष कृपा से, कविता रूप मे प्रस्तुत करने का सौभाग्य मिला । पुस्तक के साथ-साथ कविता की संगीतमय प्रस्तुती आडियो - वीडियो प्रारूप में भी की गयी है । अगला पड़ाव है " श्रीमद्भगवद्गीता " । यह पुस्तक आत्मा और परमात्मा के बीच स्वभाविक संबंध स्थापित करने हेतु, मानव- कल्याण के लिए, चरित्र - निर्माण में सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ धरोहर ग्रंथ है । श्रीकृष्ण के अनुसार, चरित्र निर्माण न तो अकर्मण्य (अकर्मी ) होने में है और न ही घर-परिवार छोड़कर संन्यास ग्रहण करने में है । यह तो कमल की फूल की तरह संसार रुपी कीचड़ में रहते हुये श्रेष्ठ कर्मयोग से बनता है । श्रीकृष्ण के दिये सभी उपदेशों को सरल शब्दों में प्रस्तुत करने में हमारी प्रस्तावित पुस्तक एक गंभीर प्रयास है । इसके बाद भी और भी कई आध्यात्मिक विषय हैं, जिसपर पुस्तक लाने की योजना है । इस कार्य में आप पाठकगण का साथ और मार्गदर्शन दोनो ही अपेक्षित है ।

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